गंगा अवतरणः कवि ईशरदास
विखम दृष्टि मुनिराज की, सहु जानत संसार।
कपिल मुनि के श्राप तें, बंश सगर भो क्षार।।
वही दुख ते विहवल भयो, भूप सगर भयभीत।
छांड नृपासन बन गयो, ईश गण जपन अमीत।।
ताको ‘असमंजस’ तनु, कपटि कुटिल अति क्रूर।
रैयत त्रासित हृदय में, देख कीयो पद दूर।।
‘असमंजस को जानिये, पुत्र ‘सुयेज्ञ’ प्रमान।
ताको नृप आसन दई, बन में कीय बिचरान।।
और भयो ‘अंशुमान’ ते, दिलीप राय जो दक्ष।
सोई उध्धारन वंस को, तप्यो तपन ततक्ष।।
पुरी अवध को परहरी, बन में कीनो बास।
दिव्य प्रकाशित देह को, जरियो आरण जास।।
बंस उध्धरन की बडी,चित्त विलूंधी चाह।
धन धन राज दिलीप को, अंत मोह अथाह।।
सुमिरन लागो स्नेह सें, रेन दिवस मन राच।
ईशर कवि आराधना, सांई चरण को साच।।
छंद तोटक:दिलीप राजा रो देहदमन
जिय साच अवाच ही जाप जपे। तन मोह अथाह सु ताप तपे।।
सत चित सदानंद नाम सही। गुण दायक लायक लीध ग्रही।।
नृप देह अबे निरमोह भयो।रट एक विशंभर नाम रयो।।
दुण बात चढि नहीं ता दल में। विरती प्रभु के पद विमल में।।
बंध बैठ गए कितने बरसां।हरिनाम भयो हिय में हरसां।।
तन ताप सीतं बरसा त्रछटे। घण धीरज ध्यान कबु न घटे।।
रूचि छांड कछु नह पास रख्यो। चख मूंद महामृत नाम चख्यो।।
फल फूल सलील की ना फुरणा। जग पावन ध्यान धरी जिरणा।।
जिरणा तन मन वचन जिके। तृष्णा नहीं रंच दिलां तिनके।।
इक ध्यान अखंड प्रचंड अगे।लगी चातक चंद्र वृति ज लगे।।
द्रढ देह समीरये राख दणी।बिरती अविरत सुध्यान बणी।।
छन हेक घड़ी पल नांही छंडै। मन नाम मनोहर भूप मंडे।।
गुण कीध वनाण सुकाल गये। भुव अंबर देव अचंभ भये।।
तिल भार डग्यो नहीं मोह तुरा।उचरे जय जाप असंख्य उरा।।
विष्णु करी तापस में विरती। मही थाट उतारण गंग मती।।
कह ईशर काज दिलीप कर्यो। भल पुत्र भगीरथ भाव भर्यो।।
भागीरथ में कुल भाव को, बोयो नृप ने बीज।
वृक्ष भयो ताको बडो, धरी भगीरथ धीज।।1
तात महेच्छा को तुरत, अपनी कर अभिलाष।
जान्हवी लावन जगत में, प्रारंभ तपन प्रयास।।2
भागीरथ मन भावना, अति द्रढ हुई अशंक।
गयो तपस्या काज वन, निरमल चित निशंक।।3
जाय आराधन कीध जबे, बट तल बन के बीच।
करिहु निग्रह चित को, सुमिरन डोरी सींच।।4
गंगा के पद में ग्रहयो, अपनो ध्यान अभेद।
सोई निहारी सुरजटी, विस्मय चारूं वेद।।5
वेद निरूपण षट श्रुति, अठ दश और पुराण।
तंत अठयावीस ताही के, बरनत जान बखान।।6
ऐसे ध्यान अभंग में, बरसां सहस़्त्र बिताय।
भागीरथ कीनो भजन, गंगा गंगा गाय।।7
जय हो मां विष्णुपदी, जय हो जय ब्रहम जल्ल।
ब्रहम कमंडल से अबे, ढहन मही थट ढल्ल।।8
सगर पुत्र को सदगति,है बगसण की हाम।
तोर कृपा बिन है नहीं, को जग पूरण काम।।9
मैं इक अरू मोही पिता, उन्ह पिता अंशुमान।
गए उभय परलोक में, परखहु मोर प्रमान।।10
शरणो गंगा मात को, अवर चहु नहीं ओट।
पुहवी थट पावन करण, दे सिरगां सू दोट।।11
जीह जपे मन चिंतवे, कर्म सुमिरण काय।
लक्ष अवर लेवे नहीं, मेरो तूं विण माय।।12
मया मया करतु मया, चहुं मया में चित।
बिन मया जो तु बने, तो शरनन कैसी स्थित।।13
भगीरथ की यह भावना, गंगा देवण ज्ञान।
कवि ईशर करूणा करी, विमल चढि वरदान।।14
सवैया
मोही लावन की सुत यत्न करो, खरी भक्ति करो हरखावनकी।
वहता वनकी हम वेग बहु, जद जोर पताल जी जावनकी।।
बिरदावन की पितृ हेत तमो, मोही खुशी भई वहां आवनकी।
नृप साठ हजार पतित भये, हम रूप पतित के पावनकी।।
करूणामय देवी दरस, प्रमुदित नयन नरेश।
अभिवंदन कर जोरी के, करी आदेश विशेस।।1
आई मोहि आज्ञा दियो, करूं गमन कैलास।
नाथ कपर्दि पद नमूं, मन अभिलाष हुलास।।2
पुत्र जाओ साधो परम, देवी आज्ञा दीध।
भागीरथ हुसे अभय, सकल मनोरथ सिद्ध।।3
छंद: रूपमुकुंद
सब सिद्ध मनोरथ शंकर सेवन, आदेश गंग की उठ चले।
वह मारग आय ईशान विलंबित, अंतर में इक टेक झले।।
मन कर्म वचन घड़ी इक मूरत, त्रिनयनं नहीं नाम तजे।
गति पित्रक हेत गये हर सेवन, भूप भगीरथ ईश भजे।।1
चत्रमास बरखा ऋतु जाय चली, वन आसन वार शिला वरसे।
घनघोर सजोर दमक्कत दामिनी, बादल मेह शिरं तरसे।।
बन मोर झिंगोर डहकत दादुर, सीत समीर चलेस ग्रजे।
गति पित्रक हेत गये हर सेवन, भूप भगीरथ ईश भजे।।2
शित काल सहे नित राजन शीतल, हेम गिरि बरफान हले।
दिसि रूंधन आप कलेवर सुधन, नाड जमे सिर हाड गले।।
अंग पार पवन वहे अत उत्तर, साधन जोर समाधि सजे।
गति पित्रक हेत गये हर सेवन, भूप भगीरथ ईश भजे।।3
तप तें उष्णकाल स ताप तपे, त्रियलोक डगे परलाप लगे।
गिरि श्रृंग ध्रगे गरमी रज पथ्थर, ज्वाल दिसोदिस नेन जगे।।
धर धोम ध्रुफान वहे तप धूमर, द्रढ अडोल वृति धरजे।
गति पित्रक हेत गये हर सेवन, भूप भगीरथ ईश भजे।।4
तीन काल यही विधि कष्ट सही तन, आसन एक हले न डगे।
कछु काल करोधन मद न मोह न, खान न पान मान तगे।।
हद जोग डिगंबर शीश जटाधर, जय उमियावर एक रजे।
गति पित्रक हेत गये हर सेवन, भूप भगीरथ ईश भजे।।5
बहुत काल तपस्या करी, भागीरथ भुवपाल।
कवि ईशर कर कर प्रसन्न, दाता दीन दयाल।।
दीन ंधु दीनानाथ आण दया।राज राजेश्वर उमंगे रिझिया।
शीश जूट जटाधर बंध कसी। नैन ज्वालं शशि भाल बार रासी।।
रूंडमाल गले काट कुंड धरी। काल कालं सुबालं पालं करी।।
आल सुंडार की खालरी अंबरं। काल कालं रूंडमाल दिगंबरं।।
हाथ त्रिशूल विक्राल ज्वाल करं। माल त्रिपुर प्रेमाल वालं हरं।।
लेपन भस्म उजाल अंगे अती। पार अनार दातार उमापती।।
आय आरूढ ओपे नंदीकेश्वरं। आविया ईशरी संगे ईश्वरं।।
मोज देता मागी लेर केफ लगी। भूप भगीरथ सर्व भ्रांति भगी।।
सामीयुं देखता वेद श्रुति सता। देवनादेव महादेव दता।।
शूलपाणि मन मोज आणी अती। चैदलोक पती बोलिया सुमती।।
मांग मांग कही नाथ आही दही। आज वर मांग वरदान देहुं सही।।
भूपति ते घड़ी दंडवत करी। राखो सरंगत शीश चरणे धरी।।
नाथ करूणानिधि हाथ मुह गाहीयं। आपको गाहीयं सुफल पाहीयं।।
तुंहि अनाथ को नाथ किरतार हो। डूबता तार भैपार दातार हो।।
उपमा और ठोर नको आवती। तूंज जेवो तुंही एक उमापती।।
साच दिले कहे शंभु जो सेवनं। धर्म अर्थ काम मोक्षं लेवे जनं।।
पाप से छूटिये देखता आपथी। ते जन उगरे त्रिविधी ताप थी।।
भूपति स्तुति कीन जोरी करं। जय हरं जय हरं जय हरं जय हरं।।
जय जय अरज नजरन, अशरण शरण उगार।
मेरी इच्छा मन तणी, समरथ धणी सुधार।।
धनी दुनिया में एक हो, शंकर मुक्त स्वरूप।
जन्म सफल शंभू दरस, भागीरथ करी भूप।।
वामदेव मम कामना, पूरे पूरणहार।
मोहि पित्र मुनि कोप ते, अवगत साठ हजार।।
यही कारज मैं तप करी, पूरन गंग प्रसन्न।
यूं कही आवतहु तूंही, धुरजटी जटा धरन।।
तब सुनि बात कवि कहे, हर मुख बोल हमेश।
महि आवत मंदाकिनी, तु कारन सीर लेश।।
भूप अति आनंद भयो, सुनि यह नाथ बचन्न।
अंबे कूं कीनी अरज, जननी जुग जीवन्न।।
जुग जननी कीजे दया, पार निभावन प्रीत।
बोल बचन बदले नहीं, येही बडा की रीत।।
महमाया आही दया, कीनी अरज कबूल।
सत्य वर दीनो चंडिका, अंबु रूप अमूल।।
छंद: मोतीदाम
उते गंग आवन की मन कीन। इते हर सीस जटा धर लीन।।
उते गंग सीर परवट वारी। ईते हर कमर बंध सुधारी।।
उते गंग जोर घमंड वधारी। ईते मद केफ कियो त्रिपुरारी।।
उते गंग सहस्त्र धार बनाई। ईते हर जगत जटा छवराई।।
उते गंग फोरन सप्त पतार। ईते जक्क रखण ईश विचार।।
उते गंग सहस्त्रधार विछूटी।। तरंगन धार हजारन तुटि।।
भये जीव जंत अति भयकार।हुवो अति घोर शब्द हंकार।।
घन घन नाद से जयोति झबक। पटक्कत फूटत चैद तबक्क।।
यहां हर खोली तहे जटधार। समाविय सीर ही धार हजार।।
शंभु मन आनंद तेर उमंग।भयो सीर में अति आनंद गंग।।
उभे शिव शक्ति की जोरी अनूप।दुहु दृग दरसत एक स्वरूप।।
गंगधर शंकर के गुण गाउं।पशाकर मोज अभेपद पाउं।।
नमो गंगनाथ विशंभर नाम। नमो सब लोक धणी सुखधाम।।
नमो परमानंद आनंद अंग। नमो हर गुण नमो हर गंग।।
हर गंगा हरखित अति, पति पत्नी भर प्रेम।
भुवपत जे भागीरथी,ए गरज गुजारीत एम।।1
गंगा महात्मय
गीत सपंखरो
चली व्रसनारां पगां हूंत ब्रहमंडां हूंत चली, ब्रहम रा कमंडला हूंत चले माह बाह।
मेर का छरंगा वच्चे पधारी सहस मुखी,पहाड़ां ओनाड़ां वच्चे गंगा रा प्रवाह।।
न्रमला तोरंग वेल उजळा प्रवाह नीर,सामळा करम्म मेटे तारणी संसार।
भली भांत सेवा करी भागीरथी लायो भलां, धिनो धिनो सुरसरी मुगतरी धार।।
सतजुग त्रेताजुग द्वापर कळू सत, नरां लोक सुरां लोक गुरां लोक नाम।
रहे जहां रघुवीर वैकुंठरी पेड़ी तहां, पाप रा कपाट भंजे कीजिये प्रणाम।।
मुनेश महेश शेष जोगेश आदेश जके,कविश अनेक भाखे मुखां मुखी क्रीत।
व्रसनंब्रहम वळी सुरजा सरीखा वंदे,पारखत कीधी गंगा प्रथमी पवित।।
उलटी हजारां धार गिरंदा बहार आई, उधार संसार सारो महिम्मा अपार।
अवतार दसां जाही इग्यारमो अवतार,कळा जोत दाखां घणी बणे जळाधार।।
पार तारे चारे जगां वले ही तारवा प्रथी, वमळा उजळा जळ प्रघळा विहंत।
महापाप कटे पुरा मुगतरा द्वार मळे,कर जोड़ी नमो मात ईशरा कहंत।।