व्रज विनोद: कवि इशरदासजी

बाळ लीला

छंद उधोर

निरखत आदय रूप निधान,कोटिक अनंग की छबि कान।

माथे मुगट पखुवा मोर, घोरत मधुर मुरळी घोर।

भाल विशाल लोल कपोल,राष्यत भानुं कोटिक ओल।

भ्रकुटि बंक भ्रोंह कबान,भळकत कुंडळां जुग भान।

नासा कीर पंकज नैन,बोलत मधुर अमृत बेन।

दसन अनार पंक्ति दंत,अधर अरतही ओपंत।

ग्रीवा हार मुगता गुंज, तामे पटा सामह पुंज।

जमुना सरस्वती अरू गंग, सोहत त्रिवली कहु संग।

कोमल हीये भ्र्रगुटि लात,सोमन हेम हीर लखात।

भारे ओप अज भुज दंड, पुहकर मनो फील प्रचंड।

तन को पलव नख गन ओप,राखत व्रज कनह से रोप।

कटि तट पीत पट लपटान,कंचन करत नेक बखान।

तप ते तरूण अरूण तपाय,बैठत हेमगिरी की छांय।

केहरी लंक कदली जंघ,निरखत चलत रूप त्रिभंग।

चरण उतंग अंबुज लाल,तामे उदय रेख विशाल।

जव तल गदा चक्र पदम,ताते कटत कोटिक करम।

निज पद लाग रज झर जात,तामे ब्रहम शिव ललचात।

खेलत बाल जूथ मंझार,गोकुल गाम नंद कुमार।

तिनके दरस ये लख बेर,ईशर वार डार्यो झेर।

बारट वार डार्यो फेर,जय जय मधुसूदन कर मेर।

दाण लीला

कबुहक गाय ले बन जात,बाळ सखाान में ब्रिजनाथ।

गोकुल गामरी सह गाय,क्रीड़ा करत केशवराय।

दधि की मथनीया सिर धार,मथुरा चली गोकुल नार।

बिचरत जहां मोहन छेल,गोपी आई करती गेल।

घेरी देख सब आहीर,रोकी रक्ख जमुना तीर।

हमको दे दधि को दान,बाबा नंदजी की आन।

लंगर देख रही बल जोर,सखियां देख नंद किशोर।

मांगत दाण दधि को मान,कहीसें कंस जाय कुवान।

इतनी सुनत बात मुरार,मटकी लेई हाथ उतार।

मोहन कवन दधि का लेत,ग्वालन जात गुछला देत।

सेंनन नैन मार सजाई, लगनां दिल नार लगाई।

शंकर चतुर मुख सुरराज,धन धन कहत हे महाराज।

होम्यो जगत का नहीं वाको छास में कहुं हेत।ं लेत,

धन धन ब्रज के आहीर,जिन्हे भये ये जदुवीर।

संुदर चोर सुरभी साम,टेरत गाय ले ले नाम।

गवन चले ग्रेहको नंद,मानुं उलट सात समंद।

उडरज धरन अंबर छाय,गोकुल चली आवत गाय।

गावत सखे मिलके ग्वाल,ताके बीच मोहन लाल।

मोहन करत मुरली गान,देखत देव बैठ विमान।

खिड़कीन मध्य आवत गाय,मोहन देख जसुमति माय।

बैठ मात गोदह जाय,तृप्ति लेत अंतर माय।

झेरत गो रज अमरान,परसत गवां पद निज पान।

तिनके दरस पे लख बेर,ईशर वार डार्यो फेर।।

छंद : दुमिळा

जमुना के यही जळ श्याम सजीवन, सुंदर तट श्वेत घणे।

वहां संत महंत रू शुद्ध श्रधावंत, भक्त अविरत नाम भणे।।

मंदर मंदर में मधु गुंजन, भाव उपावण भास भरे।

वनरावन मन प्रफुलित वादन, कृष्ण बिना अब कौन करे।।1

अति धेन सहित वां गोप के चंडल, राग बणावत मस्त रहे।

गुनि गोकुल के सब गोप गवालन, हा मन भावन लेर लहे।।

द्रढ द्रुम विद्रुम झूमत डाळिय, फूल सुगंधित यों फहरे।

वनरावन मन प्रफुलित वादन, कृष्ण बिना अब कौन करे।।2

बन मोर झिंगोर बणाविय बेहद, गोकुल गाम रूड़ो गजवे।

अरू आम्र घटा मह कोयल उठीय, लावन जीभेय गीत लवे।।

खत्र वृंद अनुपम झाड़वे खेलत, व्योम सीापव मही संचरे।

वनरावन मन प्रफुलित वादन, कृष्ण बिना अब कौन करे।।3

घट घास चैपास हरीत घणेराय, झीणाय जाडाय वे झरणा।

भय रंच नहीं निरभे नित भासत, हा हुलसीत फिरे हरणां।

दुख भूख नहीं सुख लेवत सारोय, ठाकर मोरिय आंब ठरे।

वनरावन मन प्रफुलित वादन, कृष्ण बिना अब कौन करे।।4

मही माट भरी बणी थाट मैयारिय, गोकुल से मथरा गमनं।

करही पुनि कोनही लेवत केड़ोय, राधाय भेळोय जो रमनं।।

गली कुंज गजावण रागीय ठावण, वृंद गवालन रा विहरे।

वनरावन मन प्रफुलित वादन, कृष्ण बिना अब कौन करे।।5

मिलि गोप गोपी वनरावन माझल, रास हुलास सहित रचे।

मरदांय भरी भरि देत छलंगाय, लावण नारिय केड लचे।।

ढोल मृदंग रू पावाय मंजिर, धीमाय बाजत ताल धरे।

वनरावन मन प्रफुलित वादन, कृष्ण बिना अब कौन करे।।6

नव रंगीय भू नवरंगीय गोधन, भामन रंगीय वेष भूषा।

नव अंग मरोड़ बणी पचरंगीय,टाळत भामन नैन तृषा।।

विरहां बळ उर मनोज वधारण, गावत गीत सुरे गहरे।

वनरावन मन प्रफुलित वादन, कृष्ण बिना अब कौन करे।।7

गिरीराज हजी पण अेहोय गाढोय, झींफ दुवादस मेघ झिले।

घन श्याम तमामये गोकुल गामरी, रैयत व्रेहण धींग रले।।

ईशर उत रहयो अवझांकिय, कृष्णजी ढाल सकाई करे।

वनरावन मन प्रफुलित वादन, कृष्ण बिना अब कौन करे।।8