परम प्रकाश
आद रूप ज्योति अकळ, नाद ब्रह्म निरवास।
परम ज्योति परिब्रह्म प्रभु,परम अधीश्वर प्राण।।
नमो रूप ज्योति निराकार गोळो,नमो तत्व भामी भलो नाथ भोळो।
नमो मोह माया रहितं मिजासी,नमो एक ध्यानी अजप्पो उदासी।
नमो वेष आडंबरी थे विजेता,परा मूळ ना प्राण दाता प्रणेता।
नमो नेह नाभी सोहम शब्द सामे,तूंही तूं तूंही तूं रणुकार जामे।
नमो सिद्ध साधी अखंडी समाधी,नमो जोग नेही विखंडी वियाधी।
नमो भाव भेदी अभेदी उदारं,नमो सुर आसुर सु एक सारं।
नमो अंड वासी निरातीत नंद,नमो बंड धारी रचे दूत फंदं।
नमो काम द्रोही क्रियानाथ कंटा,नमो धुर जमदूत ना भेद घंटा।
नमो काळना काळ क्रोधळ जोगी,नमो पार दातार बाबा प्रयोगी।
नमो वेदना तंत्र थी ते विछूटा,नमो ब्रहम ने भेद थी छेक छूटा।
नमो आद अंतं प्रयंतं उल्लासी,नमो तंत नोठा विभूति विलासी।
नमो प्राक्रमी लोक चवदे प्रकासी, नमो प्राण मात्रे सदा शिव वासी।
नमो देव दाता नक्की नेकवंता, नमो सत्व पक्षी सदानंद संता।
नमो नाम धारी अड़भीड़ नागा,नमो धारतल धारती दिस धागा।
नमो घोघ गंगा तणा धार नारा,नमो जोससे कामनी जाळनारा।
नमो रिद्ध ने सिद्ध नां रूद्रराजा,नमो मस्त त्रेतीस चा क्रोड़ माजा।
नमो धर्मना दूत सुधंध धारी,नमो तेम त्रिविधना ताप हारी।
नमो सूर्य कोटि समो देह शोभे,नमो थाह माया त्रिहुं लोक थोभे।
नमो दीनबंधु दयावंत देवा,नमो चार खाणी प्रति लीध सेवा।
नमो नाथना नाथ ने सिद्ध संगी,नमो एक पण तत्वथी ना असंगी।
नमो नासवंतो तमोगुण न्यारो,चलं मात्र नो ते चरे सिद्ध चारो।
नमो मस्तवासी उदासी मसाणी,नमो प्राणधाता धर्यु शूलपाणी।
नमो विश्वनो केम होय वियोगी, नमो अंड पाताल विछोह योगी।
नमो तंत वैराट साधे तमासा, नमो ठाठ मंडे अनोठीय आसा।
नहीं आवती मोजमें कोई नेठो, नमो सिद्ध दानी दीये बोल सेठो।
भली ना वृति भस्मासुर जाणी,दिधो नास पारो दया दिल आणी।
नवेखंड मंडी विखंडी निराला,प्रचंडी प्रतछी पखेरछ पाला।
जिसा आगमी बुद्ध जाहेर जोगी,वियोगी विभोगी नई को प्रयोगी।
अनंगा रिपु नाथ जोगां अध्यासी,हमेशा उमानाथ हैये हुलासी।
सिद्धां दक्ष आगे सुहावे सजोड़ा,करे अस्तुति देव देवी करोड़ां।
समाधिस्थ बेठो जडाधार सेवो,घ्ुमेले नवे नाडि़यो जोग घेलो।
गतिमान वायु नहीं धोंह गाजे,बधा तंत बंधे अहालेक वाजे।
घुरे शब्द सोहंम महाचाल घेरी,अखां भाव एकी नको प्रिय वेरी।
महा मस्त योगी नहीं मोह माया,सदा शिव ध्यानी सुजानी सवाया।
लुही जोग निंद्रा लपेटि लकीरं,फणाली फतेवंत जीतो फकीरं।
द्रढां चित देवेश शुं डोर बांधी,इळा पियाळां अंबरे घोर आंधी।
निराकार आधार नोधार धारं, छये पुंज में पुंज नाहीं प्रकारं।
वळी ना समाधि वीते वर्ष जाझा,मुकी जायजो किं उमा धीर माझा।
वियोगे रही ना सिके वास खारो,पुकारे प्रभू ओ प्रभू अश्रु धारो।
पगा सारी सुनाथ प्रित्ये प्रणामी,खरा सुखरी आप हो एक खामी।
नहीं मे हथां माल हेठी न नांखी, खरी बातरा सूर्य त्यां चंद्र साखी।
धरि ध्यान में वात को वेग धावो, बळे वियोग में देह मोही बचावो।
निके नारदे शीश आगे निमायो, वीणा तार बेगे गुणा दुख गायो।
उठियो सिद्ध आलेख आलेख बोली, खिसि स्मृति ध्यान सु आंख खोली।
विनालंब उमा तणो राध्ज्ञ वेदी,भलो वास कैलास भासे उमेदी।
उमा ने सिजी आरती हा उमंगे, सिखि विजया सोहती रूप अंगे।
उतारि जिहि आरती स्थित चिते, पड़ी पाय गाया घणा गुण प्रिते।
भलो भोळियो रीझते सिद्ध रंगी, विद्या अंग वामी सदाकाज संगी।।
गया अंतपुरी घणो हरख धारी,सदा शिव बेठा अडिगी सुधारी।
भलो नाथ नो वेष जोता भले छे, रखे रंग भीनो सहु ने रजे छे।
भणां जाथ सीरं सुहे रंग भूरी, लळी लंक भागे पड़ी छे लटूरी।
कसुंबी सुगंधी भरी लाल काया, हजारा फुणे शेषरी छत्रछाया।
अखंडी वहे धार गंगा अनूपं, सदा मेटनी पाप संताप श्रूपं।
छुटे धार जोसंग सिरा गंग छोळं, हले मोजवंता अनंता हिलोळा।
रमावी भभूती थता दिलराजी, बणावे त्रिपुंडो ग्रही जोग बाजी।
विभु वास आगां नको थे विहूणो, धुखे सुर अद्री सिरा त्रिण धूणो।
भली बार राशि बणि चंद्र भाले, प्रतापी रह्युं बंध नेत्रं प्रजाले।
धरि मर्दना रूंड नी ग्रीव माळा, रहया फेरवी बेरखा ए रूपाळा।
सुहे छालरी गज सिंहारी सारी, पणंगाहू अंगा बणावे पथारी।
मणी कालकूटं मनोहर ग्रीवं, सुहे तत्व जेरी घणा पास शीवं।
खरो रंग पूरेल विचित्र खाखी, नको जाय को ध्यानमां भंग नाखी।
जुगा जुगनो जोग साधेल जाडो, दिसा वस्त्रधारि दयावंत डाडो।
डहां नाद गेबी बजंतीय डाकं, घुरी घुंघराळी अनाडी अथाकं।
करि साभळी जो मलि किलकारी,भली जोगणी भूतड़ां प्रेत भारी।
कूदे गायने केई ताळी बजावे,भला रूप भैभीत वेषो भजावे।
भळी जूथमां नाथ भोळो भमे छे,रहया पोरसे भूतड़ांओ रमे छे।
धमंके छळंती धरा अंग धूजे,गजावे गळू पातळू नाभ गूंजे।
फूंक्यो शंख झीणो तूट्या दिस गाळा,चूक्या ध्यान जोगी स्वंभू पवाळा।
खरी केफनी धुनमां लीन खाखी, भरी लाल रंगे पुरी आंख पांखी।
जटाजूट छोडि फिरे घुंमरी ज्यां, तिमंकी चडी आवती नागणी त्यां।
भवानी उभां निरखे नाथ भेाळो, छुटे नाथने लहेरनी खूब छोळो।
कहे नचंता मांग कोई कहे छेे, दयावंत डाडो घणा बोल दे छे।
भली सोहती सींह स्वारी भवानी,स्वयंभू सवारी प्रभू पोठियानी।
कुद्यो आखलो जोमवंतो कडूकी, महा मोह चाल्यो पटा धार मूकी।
भलो नाथ भोळो निजानंद नामी, भली गोरजा मात प्रत्ये प्रणामी।
कथी क्रीत प्रीते कृपा नाथ तोरी, मति शुद्ध राखो सदा नाथ मोरी।
दियो दान तो भक्तिनुं भान थाये, सहु दोष मारा सुतोषे समाये।
कृपानाथ सेवा तिंहारी करावो, दहेना मुने दूतनो कोय दावो।
हजीना ठरे चित मारूं हुं सामी, धणी आप मोरा दियो चित धामी।
करो दृष्टि एवी कहां मैं कृपालु, भलो भास चोपास थारो ज भालूं।
अरे नाथ हूं तो अबुद्धो अचेती, फिर्यो चार खाणी विर्यो सांझ जेती।
दयालु प्रभू ग्रभरा दुख साही, प्रिता जाम मोरा त्रयो लोक मांही।
भवा नाथ गयो छुं हवे भान भूली,अरे आ घड़ी जाय मोरी अमूली।
हरो दुरमती हे प्रभू हेत लावी, करो पार दातार सेवा करावी।
छती बूडती जहाज ना वात छानी, स्वयंभू बनो तारवाने सुकानी।
हवे तो हिल्लोळे चडी चकडोळे, नथी वार जाझी छुटि एक छोळे।
थीसे नाश वायु तणी एक थापे, अभे दान ईमा कहो कोण आपे।
उंडा पंथमा नावड़ी आ उभेली, बचावे थई खाखडो नाथ बेली।
भरोसो भवा नाथनो एक मारे, महादेव मारे भले तो उगारे।
छीये एक ने नाथ ना पाडछेटी, भली एकता साधते सिद्ध भेटी।
स्वयंभू नथि दिन आव सुहाता, दहे दिल मारूं अठोपोर दाता।
प्रभू हुं छवुं पाग पागेय पापी, कूड़ा कर्मरि जाळ तूं नाख कापी।
उगारी मने चाकरि एह आपो, थिरां वास तोरे सदानंद थापो।
तिमंना रहि ब्रहम मने नाथ तारी, विभुं गुण थारा परं जाउं वारी।
स्वयंभू थकि स्ािूल जे स्नेह बांधे, वियाधी नको दिल एणे न वाधे।
रखावो मुंने आपने जीव ध्यान राजी,बिंहु लोक सुधारवा नाथ बाजी।
दया दाखवी दाखवी ने दयालू,दीना नाथ काढ्यूं तमी सु दिवाळुं।
खरी बात मां छो नही नाथ खली, झड़ी झापटी आबरू राख झाली।
नथी द्वार तारे थयुं को निरासा, अविनाश पूरी तमे केक आसा।
धरी मूढता सिद्ध तें रूंड धारी, दियो साद सामो मुन्हे दुखहारी।
प्रितें मोरलो मेदाने जो पुकारे, वळे बादळो साद देतांय वारे।
नथी जाणता नेहनी त्रेह वातुं, छिपाव्युं नथी चित मारूं छिपातुं।
छउं आपिणे हाथ हुं रंक छोरू, नशाबाज राज न थाजो निठोरूं।
रिबावी मुंने रांकने कांही मारे, तिहारो तजेलो कहो कौन तारे।
नही आसरो नाथ मारे बिजानो, गजानन पिता पति थे ग्रिजानो।
चिदानंद मारो वलोपात चोखो,धणी उपरां होय धोखो अनोखो।
धणी निकारे सही धीर खूटे,त्रियोक्षी नही एक आ त्राग तूटे।
वधे वियाधी बाध लागे बहुए, सूझे कुर्म कुंडा निमूळा सहुए।
उडाडो चडी दिल अज्ञान आंधी, सदानंद त्रुट्यो दीयो ताग सांधी।
कृपानाथ वातुं बधी कीमियानी, छुपावी किहा राखसो आप छानी।
पूरे साख पंडित वेदो पुराणो, कहे आलमी कैक काजी कुरानो।
वळि आप अल्लाहने शाह वेसे। दिधी साख उठी दिनांणी दिनेशे।
नथी भिन्नता कोई थी नाथ तारी, परा लोक आलोक कहे छे पुकारी।
विटंबांण सींघांण सा दोष सामी, उरादाह मेटो अखां अंत्रयामी।
दयाळु मुंने कुर्म विलोम दोरे, खसाड़ी बधा दोष बेसाड़ खोरे।
विभू दोष मोरा वृषा बूंद जेता, सिराजार किणा उदियात एता।
किंयाथी बचूं हूं अधर्मी क्रिपाळू, दियो आसरो नाथ मोरा दियाळू।
दिधो आसरो देव ने सेव जाणी,पिधु जैर आपे पराहित माणी।
भला नाथ कई दुखमां भाग लीधा, दया धाम पाछा अभे कोल दीधा।
भयं मोतनो मारकंडेय भारी, अविनाश कीधो मुकि मुक्ति चारी।
त्रिपुरा सुरी त्रास त्रिलोक ताप्यो, क्रिपानाथ ते उडतो भूप काप्यो।
कहु रावणे अंग वाजिंत्र कीधूं, दियालं बधा लोकनूं राज दीधूं।
भलो भाव भागीरथं भूप भारी, धरानाथ गंगा शिरं घोघ धारी।
अभिमानी गंगा तमुंथी अजाणी, गळी गड़हड़ी अंबरे थी गुमाणी।
पड़ी लड़थड़ी ए प्रथी तोड़ धारा, धड़ धड़ी हुड़ी बादळो थी धसारा।
फरे घुम्मरी खळखळी हास्य फेंके, गतिने वधारे अति गर्व ग्रंेके।
तड़ी तड़फड़ीने चड़ी छे तूफाने,कही बंध सिरे नही बूंद काने।
मवारे महादेव गंगा मूंझाणी, पणां पंखणी पिंजरे ज्यों पुराणी।
हवे मोह मूकी जुओ मंद हाले, पतितो तणां पाप आपे प्रजाले।
भला नाथ सुं भिलड़ी मां भ्रमाणा, थरू मोह श्रुपे अनंगिय थाणा।
दोहा
कवि ईशर काशीपुरी, विषे नाथ वंदीय।
परम प्रकाश प्रेम से, पुनितोवा परठीय।।
कलशःछप्पय
मारकंड भय मौत, याही अभय तूं कीनो।
दस कंधा पर रीझ,दत वैभव सह दीनो।।
वपु भीम कर वजर,अजर नाथ अविनाशी।
भागीरथ तंत किये पूरन कवलासी।।
अनंत उधारक अखिल जग, महा उदार महादेव मन।
उमानाथ ईशर भणे,तार तार मुं त्रिनयन।।
शिव समाधीः कवित
स्वेत नभ सूरज त्यों हिरन प्रकास स्वेत,श्वेतगिरि श्वेत जल शीतल सरसावतो।
खानी उद्भिज प्रमुदित है वहां की जहां,देखत अनेक रंग आंखों में आवतो।।
हरियाली भुवमंे विद्रुम अति हरे भरे,तामें किल्लोल खग आनंद उपजावतो।
ईशर भनंत ध्न्य धन्यवा अनेक धन्य,स्वयंभू को स्थान कईलास वो कहावतो।।
शुभ्रगिरि श्रृंग हूपे आसन ईशान नाथ,पदमासन वारि व्हों ध्यान को लगारी है।
अलख उचारी वो ब्रहम के विहारी भये,बाह्य की विसारी सुध अंदर की धारी है।।
योग के संयोग में ये विश्वको वियोग कीनो,मंगल प्रमोद दसा समाधि सुधारी है।
ईशर भनंत एक एक तें अनेक रंग,अंतर त्यों आंख मेरी ठीक कर ठारी है।।
ओह्म त्यों सोह्म की चाल हउ अनेरी वाको,फेरी कर हंस ब्रहमरंध्र में रमावतो।
भोमिका सपतनकी खंजरी बनाई दसा,शंभु सुखमणा साथ राची रहावतो।।
मकरी के तार रूप् देशमें विहार करी,योगी अवधूत यही प्रज्ञा प्रसारतो।
कोटि रवि तेज पुंज शक्ति अनंत बीच,ईशर अनंत योग कायम कमावतो।।
ज्योतिहि में ज्योति की ही जावत सिरूप जैसे,एसो अब ध्यान लगो योगी अवधूत को।
परम प्रकाश परिब्रहम के पदाम्बुज मो,चित को लगाय कीनो अंतर अच्युत को।।
चेतन समेट ह्यां चवाजोगी जड़ाल भर्यो,गयो ही संबंध तबे भागी पंचभूत को।
ईश्वर परोक्ष जग पाळग वह जोगीको,देखंत डर होत देह घर जमदूत को।।
अंतर अतीत मनमीत मोदयुक्त महा,स्वयंभू कि स्थितप्रज्ञ दसा है दिखावती।
विनशे विकल्प और आंधी ब्रहमण्ड कियो,मुक्ति प्रकार चारू गहेरी सुर गावती।।
शक्ति अनंत सत्य ओजस अतुल महत,शाश्वत सरूप योग रासको रचावती।
ईशर कहंत अब सत चित आनंद श्रुप,भोले भवनाथजी कीसमाधि सुहावती।।
हरकी लटुरियो में नागन रू गंगधारा,अंग को महोर रंग औरही वतावती।
माला त्यों रूंडन की और ही लपेटी छाला,भूत के रसाला साथ शिव को भजावती।।
कछप भुजंग नंदी शिवको समीप ठांढे,जोगन उछार भरी झांझर झमकावती।
ईशर भनंत यही दरस मधुर दानी,लेवनको आंख मेरी लगनी लगावती।।
वारत हरनोेटाकी नाहरकी छाल पास,मिटी मसानकी वो मंजन महादेव की।
नयन के बीच धर्यो नयन मनोज रिपु,भासत कराल काल उन्से अहंमेव को।
इंदु कपाल माल व्याल की सुहावे ग्रीव,जेही सकाल प्रभु दंडत दुख देवको।
हर को स्वरूप यही ईशर को जये और,रीत के सहित चहे स्वयंभू की सेवको।।
स्वयंभू की सेव चहुं अंतर अभेव सह,उर अहमेव भाव पाते कहुं अलसे।
माया मनमेव मूर्त रूप् में रहेन राची,क्रोधादि रिपु होत बंधित वो बल से।
ईष्णा अनंत कोही आवत हे अंत और,सकल विमुक्त दोष इन्द्री मन मल से।
ईशर भनंत होत ब्रहम को अखंड भास,त्रासहर नाथ तेरी छवि आंख तल से।।
अंतर विषाद उन्माद त्योंप्रमाद अंग,हेरी हर संग देत आनंद अतुल को।
प्रकृति पचीस वाको जानु जगदीश प्रभु,निर्मल कर लैत और सुक्ष्म पे स्थूल को।।
जामण रू मृत हुंको दरद मिटाय देत,अबतो सुधार नाथ होती वही भूल को।
पूरण प्रलाप पाप त्योंती त्रिताप नाथ,विनसेंगे जाप जाप जाप ईशर अमूल को।।
कालको प्रचंड दंड लागन को भयो जबे,तबे मारकंड बंड धारि लीय बथ में।
ज्योति अखंड के स्वरूप में जड़ाल जग्यो,नासक त्रिशूल लीन हाकल दीय हथ में।।
कंपत कराल काल अबके अकाल देख,परत अनेक बेर जाही जम पथ में।
ईशर भनंत युग युग के यह योगी को,शरण लहंत होत सुख सब सथ में।।
खप्पर त्रिशूल डाक शंखको ध्राये पण,बैठके मसाण सभा भूतन की भरी है।
बंधे पद घुघर हर डमर साजाई देख,जोगन मुदित प्रेत किलकारी करी है।।
नाचन को लगे नाथ साथ में अनेत भूत,जुथकी लटुरि ओर नागन रही फरी है।
ईशर भनंत यही शिवको प्रमोद सदा,देखन को मेरे दृग आसा उर धरी है।।
लहरी सिर गंग की लटुरियों में लाज रही,भीति सब भाज रही भागीरथ भूप की
तांडव के भाव में वा अनहद ईशान नाथ,थै थै कर नाच रहे आभा अनूप की।।
बेहद वां भूतप्रेत जोगन के झुण्ड अये,तामे त्रिअक्ष छबि त्रिगुण तदूप की।
ईशर भनंत अब अंबर पियाळ और,जहां तहां होत झांकी सोई स्वरूप की।।
जग के हो मूल शूलधारी शिव शंकरजी,जग के हो पाल और जग के ही काल हो।
जग के अनंत जीव शिव के स्वरूप् सत्य,उनमें अकाल आप देखत दयाल हो।।
खानी हां चारो की जीवहे विहंग जूथ,ताके त्रिनेत्र नाथ विद्रुम विशाल हो।
ज्योति स्वरूप् जग बीच में जड़ाल प्रभू,ईशर भनंत कृपा अब्धी कृपाल हो।।
गिरिजा के नाथ नमूं शंभु समराथ तोहे,अभेवर हाथ मोपे धुर्जटी धरीजिये।
मैं हूं अनाथ प्रभु जानत हो आप और,लेवत ना सुद्ध क्यों करूणा करीजिये।।
शोची ग्रभवास त्रास निशदिन निरास रहुं,केवल हा काल त्रास हर हर हरीजिये।
ईशर भनंत आदि अंत के पुरूष आप,दिलके उदार देव दया कर दीजिये।।